दुसरे का दोष देखना आसान है
(मेन्डक श्रेष्ठी की कथा)
एक समय भगवान बुद्ध अन्गुत्तराप में चारिका करते हुए जाकर जेतवन में विहार करते थे. मेण्डक श्रेष्ठी भगवान के आगमन को सुनकर दर्शनार्थ जाने लगा. मार्ग में तैर्थिकों ने उसे देख भगवान् के पास जाने से रोकने के लिये कहने लगा – “क्यों तुम क्रियावादी होते हुए भी अक्रियावादी की पास जा रहे हो?” परन्तु वह उनकी बातों से अप्रभावित हुए रुका नहीं और भगवान् के पास जाकर वन्दना कर एक ओर बैठ गया. शास्ता ने आनुपूर्वी कथा कहकर उपदेश किया. उसने उपदेश के अन्त में स्रोतापत्ति-फल को प्राप्त कर तैर्थिकों द्वारा रोकने की बात को कह सुनाया.
तब भगवान ने उसे कहा – “गृहपति! ये प्राणी अपने महान दोष को भी नहीं देखते हैं, किन्तु अविद्यमान भी दूसरों के दोष को विद्यमान करके स्थान-स्थान उडाते फिरते हैं.” और इस गाथा को कहा –
“सुदस्सं वज्जमन्नसं अत्तनो पन दुद्दसं, परेसं हि सो वज्जानि ओपुणाति यथाभुसं, अत्तनो पन छादेति कलिवं कितवा सठो.”
अर्थात – दुसरे का दोष देखना आसान है, किन्तु अपना दोष देखना कठिन है. वह पुरुष दूसरों के ही दोषों को भूसे कि भांति उडाता फिरता है, किन्तु अपने दोषों को वैसे ही ढकता है जैसे बहेलिया शाखाओं से अपने शरीर को.
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